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आर्थिक जगत : अतीत को भुलाकर नए पथ पर चलने का समय

यदि वर्ष 1939-45 के द्वितीय विश्व युद्ध ने यूरोप को तबाह किया तो इस महायुद्ध के बाद चल रहे शीत-उष्ण युद्ध द्वारा एशिया बर्बाद हो रहा है। यूरोप के साम्राज्यवादी देश जब द्वितीय महायुद्ध के बाद एशिया और अफ्रीका के अपने उपनिवेशों को स्वतंत्रता देने के लिए बाध्य हुए तो उन्होंने वहां ऐसी समस्याएं छोड़ी जिनके कारण स्वतंत्र हुए देश आपस में लड़ते रहे और आर्थिक रूप से विकसित न हो सके। इस तरह से पश्चिमी यूरोप के साम्राज्यवादी देश और उनका अमेरिकी सरगना स्वतंत्र देशों पर अपना आर्थिक साम्राज्यवाद बनाए रखने में सफल रहे हैं।
हम यह अक्सर भूल जाते हैं कि स्वतंत्रता के समय भारत का विभाजन अंग्रेजी साम्राज्यवाद की चाल थी। यूरोपीय साम्राज्यवादी देशों ने भारत की तरह ही कोरिया, चीन, वियतनाम, इराक, फिलिस्तीन और इथोपिया जैसे कई देशों का विभाजन कराया। इसी षड्यंत्र के कारण आज साम्राज्यवादी युग की समाप्ति के लगभग 70 वर्ष बाद भी एशिया और अफ्रीका के पूर्व उपनिवेशी देश आपसी संघर्ष के चलते आर्थिक विकास की दौड़ में काफी पीछे रह गए। इसीकारण आज भी सारी दुनिया में यूरोप और अमेरिका का वर्चस्व बरकरार है।
यदि हम अपने देश भारत की बात करें तो हमारे विकास के मार्ग में सबसे बड़ी समस्या पर्याप्त संसाधनों का अभाव है। अपने लगभग दो शताब्दी के शासन में अंग्रेजो ने हमारे आर्थिक संसाधनों का व्यापक दोहन किया। स्वतंत्रता प्राप्ति के समय हमारी आर्थिक स्थित बहुत ही कमजोर थी क्योंकि सारी की सारी सरकारी आय ब्रिटिश सरकार द्वारा द्वितीय महायुद्ध में लगा दी जाती थी। कृषि की दशा विचारणीय थी और औद्योगिक विकास नाम मात्र का था। यह सिर्फ मुहावरा ही नहीं है कि सुई और पिन जैसी छोटी-छोटी चीजें भी हम आयात करते थे।
स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद नियोजित विकास द्वारा जब हम अपनी आर्थिक स्थिति सुधारने लगे तब इन्हीं पाश्चात्य देशों ने हमारे देश में औद्योगिकीकरण का पुरजोर विरोध किया। विकास के लिए हमें शांति का वातावरण चाहिए था इसलिए हमने विश्व शांति, पंचशील और वसुधैव कुटुंबकम की बात की। पर पाकिस्तान और चीन के साथ हमारे सीमा के झगड़े जिनका मूल कारण साम्राज्यवादी षड्यंत्र था हमारी आर्थिक प्रगति के रास्ते में आए। न केवल भारत बल्कि चीन, पाकिस्तान और अफगानिस्तान जैसे छोटे से देश को भी अपनी सुरक्षा के लिए सेना और शस्त्रों पर बहुत बड़ा व्यय करना पड़ा जिसके कारण न उनका समुचित आर्थिक विकास हो पाया और न ही वहां सामाजिक सौहार्द का वातावरण बन पाया। कल्पना कीजिए कि चीन, भारत और पाकिस्तान ने सेना और शस्त्रों पर पिछले 60-70 वर्षों में जितना व्यय किया है उसका दसवां भाग भी यदि शिक्षा, स्वास्थ्य और छोटे उद्योग-धंधों को विकसित करने पर किया होता तो आज हमारी आर्थिक स्थिति कितना सुदृढ़ होती और हमारे आम आदमी का जीवन स्तर भी कितना अच्छा होता। आज हम, विशेषत: भारत और पाकिस्तान, अपने आम नागरिकों की मूलभूत आवश्यकताओं को दरकिनार कर एक अंधी सैन्य दौड़ में लगे हुए हैं।
हमारी भू-राजनैतिक स्थित के संदर्भ में कुछ ऐसे प्रश्न हैं जिनका उत्तर हमें अपने शासकों से मांगना आवश्यक है। अगर अमेरिका और कनाडा एक असैन्यीकृत अंतर्राष्ट्रीय सीमा रेखा के साथ रह सकते हैं तो भारत और पाकिस्तान क्यों नहीं रह सकते हैं जो कल तक एक ही देश थे। इसीतरह यदि एक बिना सुलझे सीमा विवाद के साथ भारत और चीन बिना गोलाबारी किए और बिना कोई सशस्त्र संघर्ष किए पिछले 58 वर्ष से साथ रह रहे हैं तो भारत और पाकिस्तान के लिए आए दिन युद्ध विराम रेखा पर संघर्ष, गोलाबारी सैनिकों की शहादत और निर्दोष नागरिकों की हत्या रोकना क्या एक असंभव कार्य है?
आज भारत और पाकिस्तान राष्ट्रवाद के ऐसे उन्माद के दौर में हैं जहां यह प्रश्न पूछना ही असंभव प्रतीत होता है। हमारे दोनों देशों के हुक्मरान यह भी नहीं देख पा रहे हैं कि इस निरर्थक संघर्ष से अपने को बचाकर कल तक हमारे देशों का हिस्सा रहने वाला बांग्लादेश कितना तेजी से प्रगति कर रहा है। सीमित संसाधनों और भूमि पर अत्याधिक जनसंख्या दबाव के बावजूद पाकिस्तान द्वारा क्रूर और अमानवीय शोषण के बाद वर्ष 1971 में स्वतंत्र हुए बांग्लादेश ने पिछले दशकों में जो प्रगति की है वह भारत और पाकिस्तान के लिए एक नमूना है। आज हम अपने दंभ में शायद यह बात ना माने पर सच यह है कि सामाजिक मानकों पर बांग्लादेश दक्षिण एशिया का सबसे प्रगतिशील देश बन गया है। आज भारत और पाकिस्तान दोनों ही देशों की अर्थव्यवस्था संकट से गुजर रही है। हमारे लिए यह कोई संतोषजनक बात नहीं हो सकती है कि पाकिस्तान का संकट हमारे से कहीं अधिक गंभीर है और वह कभी भी फाटा की काली सूची में डाला जा सकता है। एक विपन्न पाकिस्तान हमारे लिए और भी बड़ा संकट होगा। भारत से आर्थिक आदान-प्रदान को बंद करके और भारत के लिए अपना वायुमार्ग अवरुद्ध करके पाकिस्तान ने अपना आर्थिक संकट और भी गहरा कर लिया है।
भारतीय अर्थव्यवस्था भी मंदी के बहुत बुरे दौर से गुजर रही है। मोदी की सरकार चाहे कोई भी दावा करे पर यह सच है कि पिछले दो वर्षों में आर्थिक प्रगति की दर तेजी से गिरी है। यह बात भाजपा नीत राजनेता जैसे डॉ. सुब्रमण्यम स्वामी, अरुण शौरी और पूर्व वित्तमंत्री यशवंत सिन्हा भी जोर-शोर से कह रहे हैं। कश्मीर में धारा 370 समाप्त करने का राजनैतिक तर्क कितना ही मजबूत क्यों न हो वहां कड़ी सुरक्षा और नेटवर्क सेवा के बंद होने के कारण बहुत बड़ा आर्थिक नुकसान हुआ है। इसीतरह मोदी सरकार के कई राजनीतिक फैसले और अर्थव्यवस्था प्रणाली में सुधार के प्रयास निवेश और रोजगार के मोर्चे पर पूरी तरह असफल रहे हैं। उग्र राष्ट्रवाद की भावना में बह रहे समाज को आज नहीं तो कल इस वास्तविकता से रूबरू होना ही पड़ेगा।
आज आवश्यकता देश में सौहार्दपूर्ण वातावरण बनाकर विकास के सार्थक मुद्दों पर बहस करने की है जिससे इस आर्थिक संकट से उभरने की सही रणनीति बनाई जा सके। धर्म, जाति, विचारधारा और राष्ट्रवाद के भावनात्मक मुद्दे हमारा ध्यान विकासपरक आर्थिक सोच से भटकाते हैं। देश और समाज का कल्याण बड़े-बडे नारों और साहस प्रदर्शन से न होकर ठोस और रचनात्मक कार्य करने से होगा। हमें यह भी समझना होगा कि घुसपैठियों, शरणार्थियों तथा अल्पसंख्यकों के दमन का मूल कारण आर्थिक विपन्नता है। यदि हम इन समस्याओं का स्थायी हल चाहते हैं तो हमें समग्र दक्षिण एशिया के विकास की बात सोचनी होगी। भारत, पाकिस्तान और सार्क समुदाय के अन्य देशों को यह समझना होगा कि दक्षिण एशिया के विकास का काम उनका है और पाश्चात्य देश या फिर चीन का लक्ष्य केवल अपने निहित स्वार्थों को पूरा करना है न कि विश्व की लगभग एक चौथाई मानवता के इस भाग को विकसित करना।
समय आ गया है कि जब भारत, पाकिस्तान और दक्षिण एशिया के अन्य देश आपसी संघर्ष व मतभेद को भुलाकर विकास को अपना लक्ष्य बनाएं। इसके लिए हमें शांति और विश्वास की उस डगर पर चलना होगा जिसका प्रयास प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने वर्ष 2014 में सत्ता में आने के बाद किया था। आज फिर पंचशील के सिद्धांत को अपनाने की आवश्यकता है। यह भी अत्यंत आवश्यक है कि जहां आपसी समझौतों द्वारा व्यापार को बढ़ाया जाए वहीं पर सीमित संसाधनों का उपयोग सकारात्मक रूप से किया जाए न कि आपसी टकराव और संघर्ष को प्रोत्साहन देने के लिए किया जाए। आपसी सहयोग, सौहार्द और विश्वास द्वारा ही हम प्रगति करके 21वीं शताब्दी की विकासधारा के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने में समर्थ होंगे और यही हमारी दक्षिण एशिया के साम्राज्यवादी अतीत पर अंतिम विजय होगी। #
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